हर मौका एक समस्या है और हर समस्या एक मौका!

जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं।

अक्सर जो होता है मौका, उसे लोग समझ लेते हैं समस्या। क्योंकि मौका हमेशा पहले भेष बदलकर ही आता है। अर्थात समस्या के रूप में ही वह नजर आता है।

आइए वर्तमान परिस्थिति में हम इस बात को विस्तार से समझने का प्रयास करें।

जैसे अभी हर आदमी एक ही बात बार-बार दोहरा रहा है कोरोना, कोरोना, कोरोना।

पहले तो हम यहां फैसला कर ले कोरोना हमारा मित्र है या शत्रु है?

जहां तक मेरा विचार है कोरोना शत्रु भी है या हो सकता है। अथवा मित्र भी है या हो सकता है। यह निर्भर करेगा होस्ट पर, अर्थात जिसके शरीर में संक्रमण हुआ है।

बिना गहराई में गये भी अगर कॉमन सेंस का इस्तेमाल करें तो, किसी भी महामारी में या किसी भी संक्रमण से सभी व्यक्ति पर एक जैसा असर क्यों नहीं पड़ता?

सीधा सा जवाब मिलेगा, इम्युनिटी! अर्थात, रोग-प्रतिरोधक क्षमता या शक्ति। और थोडी गहराई से विचार करें तो जीवनी शक्ति जिसे वाइटल फ़ोर्स या वाइटल प्रिंसिपल भी कहा गया है।

तो अब प्रश्न उठता है कि, यह रोग-प्रतिरोधकता कैसे बढ़ेगी या सन्तुलित होगी? आत्मनिर्भर बनने से या पराश्रित बनने से?

आत्मनिर्भर या पराश्रित? आप क्या बनना चाहेंगे?

बाहर बाहर कितनी भी व्यवस्था कर लें, संक्रमण को रोकना लगभग असंभव होता है।
जरूरत है अंदर से सबल होने की।

बुखार में जबरदस्ती तापमान को कम करना, टीकाकरण के बाद पेरासिटामोल खिलाना, बचपन से ही हमेशा चप्पल-जूते और कपड़ों में बच्चों को सजा-धजा कर रखना और प्रकृति के संपर्क में नहीं आने देना तथा जब भी शरीर कोई रोग बाहर निकाल रहा हो उसे आधुनिक चिकित्सा के नाम पर दबा देना, इत्यादि रोग-प्रतिरोधकता (इम्युनिटी) को कम कर देते हैं।

किसी का संघर्ष छीनना, उसे शक्ति से वंचित कर देना है।

दरअसल सर्दी-खांसी, बुखार जैसे मौसमी उपसर्ग शरीर की सफाई करने के साथ-साथ इम्यूनिटी ही नहीं वाइटैलिटी को भी “बूस्ट’ करते हैं और वायरस, बैक्टीरिया इत्यादि के संक्रमण इस प्रक्रिया में सहायता करते हैं, अतः जिसे समस्या समझा जाता है, वही मौका होता है!

याद रखिये, महामारियों में सभी लोग नहीं मर जाते, केवल वही मरते हैं, जो अंदर से कमजोर होते हैं।

संघर्ष से ही शक्ति मिलती है, पलायन से तो दुर्बलता ही प्राप्त होगी!

इसीलिए हमारी चिकित्सापद्धति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें अनावश्यक बाहरी मदद या हस्तक्षेप नहीं हो। व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाया जाय, न कि पराश्रित।

होमियोपैथी में यही किया जाता है। रोगी को स्वास्थ्य की सामान्य अवस्था में वापस लाया जाता है, जहां उसे किसी भी बाहरी मदद की बार-बार आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

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